उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक ये कस्बे मद्रास, कलकत्ता तथा बम्बई; बड़े शहर बन गए थे जहाँ से नए शासक पूरे देश पर नियंत्रण करते थे। आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित करने तथा नए शासकों के प्रभुत्व को दर्शाने के लिए संस्थानों की स्थापना की गई। भारतीयों ने इन शहरों में राजनीतिक प्रभुत्व का नए तरीकों से अनुभव किया। मद्रास, बम्बई और कलकत्ता के नक्शे अन्य पुराने भारतीय कस्बों से काफी हद तक अलग थे, और इन शहरों में बनाए गए भवनों पर अपने औपनिवेशिक उद्भव की स्पष्ट छाप थी। सरकारी अधिकारी के बंगले और अमीर व्यापारी के महलनुमा आवास से लेकर श्रमिक की साधारण झोपड़ी तक, भवन सामाजिक सम्बन्धों और पहचानों को कई प्रकार से परिलक्षित करते हैं।
पूर्व-औपनिवेशिक काल में कस्बे और शहर
कस्बों को सामान्यत: ग्रामीण इलाकों के विपरीत परिभाषित किया जाता था। वे विशिष्ट प्रकार की आर्थिक गतिविधियों और संस्कृतियों के प्रतिनिधि बन कर उभरे। लोग ग्रामीण अंचलों में खेती, जंगलों में संग्रहण या पशुपालन के द्वारा जीवन निर्वाह करते थे। इसके विपरीत कस्बों में शिल्पकार, व्यापारी, प्रशासक तथा शासक रहते थे। कस्बों का ग्रामीण जनता पर प्रभुत्व होता था और वे खेती से प्राप्त करों और अधिशेष के आधार पर फलते-फूलते थे। अकसर कस्बों और शहरों की किलेबन्दी की जाती थी जो ग्रामीण क्षेत्रों से इनकी पृथकता को चिन्हित करती थी। फिर भी कस्बों और गाँवों के बीच की पृथकता अनिश्चित होती थी। किसान तीर्थ करने के लिए लम्बी दूरियाँ तय करते थे और कस्बों से होकर गुजरते थे वे अकाल के समय कस्बों में जमा भी हो जाते थे। इसके अतिरिक्त लोगों और माल का कस्बों से गाँवों की ओर विपरीत गमन भी था। जब कस्बों पर आक्रमण होते थे तो लोग अकसर ग्रामीण क्षेत्रों में शरण लेते थे। व्यापारी और फैरीवाले कस्बों से माल गाँव ले जाकर बेचते थे, जिसके द्वारा बाजारों का फैलाव और उपभोग की नयी शैलियों का सृजन होता था।
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों में मुगलों द्वारा बनाए गए शहर जनसंख्या के केन्द्रीकरण, अपने विशाल भवनों तथा अपनी शाही शोभा व समृद्ध के लिए प्रसिद्ध थे। आगरा, दिल्ली और लाहौर शाही प्रशासन और सत्ता के महत्वपूर्ण केन्द्र थे। मनसबदार और जागीरदार जिन्हें साम्राज्य के अलग-अलग भागों में क्षेत्र दिये गए थे, सामान्यत: इन शहरों में अपने आवास रखते थे : इन केन्द्रों में आवास एक अमीर की स्थिति और प्रतिष्ठा का संकेतक था। इन केंद्रों में सम्राट और कुलीन वर्ग की उपस्थिति के कारण वहाँ कई प्रकार की सेवाएँ प्रदान करना आवश्यक था। शिल्पकार कुलीन वर्ग के परिवारों के लिए विशिष्ट हस्तशिल्प का उत्पादन करते थे।
ग्रामीण अंचलों से शहर के बाजारों में निवासियों और सेना के लिए अनाज लाया जाता था। राजकोष भी शाही राजधानी में ही स्थित था। इसलिए राज्य का राजस्व भी नियमित रूप से राजधानी में आता रहता था। सम्राट एक किलेबन्द महल में रहता था और नगर एक दीवार से घिरा होता था जिसमें अलग-अलग द्वारों से आने-जाने पर नियंत्रण रखा जाता था। नगरों के भीतर उद्यान, मस्जिदें, मन्दिर, मकबरे, महाविद्यालय, बाजार तथा कारवाँ सराय स्थिति होती थीं। नगर का ध्यान महल और मुख्य मस्जिद की ओर होता था। दक्षिण भारत के नगरों जैसे मदुरई और काँचीपुरम् में मुख्य केन्द्र मन्दिर होता था। ये नगर महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र भी थे। धार्मिक त्योहार अकसर मेलों के साथ होते थे जिससे तीर्थ और व्यापार जुड़ जाते थे। सामान्यत: शासक धार्मिक संस्थानों का सबसे ऊँचा प्राधिकारी और मुख्य संरक्षक होता था। समाज और शहर में अन्य समूहों और वर्गों का स्थान शासक के साथ उनके सम्बन्धों से तय होता था। मध्यकालीन शहरों में शासक वर्ग के वर्चस्व वाली सामाजिक व्यवस्था में हरेक से अपेक्षा की जाती थी कि उसे समाज में अपना स्थान पता हो। उत्तर भारत में इस व्यवस्था को बनाए रखने का कार्य कोतवाल नामक राजकीय अधिकारी का होता था जो नगर में आंतरिक मामलों पर नजर रखता था और कानून-व्यवस्था बनाए रखता था।
अठारहवीं शताब्दी में परिवर्तन
यह सब अठारहवीं शताब्दी में बदलने लगा। राजनीतिक तथा व्यापारिक पुनर्गठन के साथ पुराने नगर पतनोन्मुख हुए और नए नगरों का विकास होने लगा। मुगल सत्ता के क्रमिक शरण के कारण ही उसके शासन से सम्बद्ध नगरों का अवसान हो गया। मुगल राजधानियों, दिल्ली और आगरा ने अपना राजनीतिक प्रभुत्व खो दिया। नयी क्षेत्रीय ताकतों का विकास क्षेत्रीय राजधानियों — लखनऊ, हैदराबाद, सेरिंगपट्म, पूना ;आज का फणेद्ध, नागपुर, बड़ौदा तथा तंजौर ;आज का तंजावुर — के बढ़ते महत्व में परिलक्षित हुआ। व्यापारी, प्रशासक, शिल्पकार तथा अन्य लोग पुराने मुगल केन्द्रों से इन नयी राजधानियों की ओर काम तथा संरक्षण की तलाश में आने लगे। नए राज्यों के बीच निरंतर लड़ाइयों का परिणाम यह था कि भाड़े के सैनिकों को भी यहाँ तैयार रोजगार मिलता था। कुछ स्थानीय विशिष्ट लोगों तथा उत्तर भारत में मुगल साम्राज्य से सम्बद्ध अधिकारियों ने भी इस अवसर का उपयोग ‘कस्बे’ और ‘गंज’ जैसी नयी शहरी बस्तियों को बसाने में किया।
परंतु राजनीतिक विकेन्द्रीकरण के प्रभाव सब जगह एक जैसे नहीं थे। कई स्थानों पर नए सिरे से आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ीं, कुछ अन्य स्थानों पर युद्ध, लूट-पाट तथा राजनीतिक अनिश्चितता आर्थिक पतन में परिणत हुई। व्यापार तंत्रों में परिवर्तन शहरी केन्द्रों के इतिहास में परिलक्षित हुए। यूरोपीय व्यापारिक कम्पनियों ने पहले, मुगल काल में ही विभिन्न स्थानों पर आधार स्थापित कर लिए थे : पुर्तगालियों ने 1510 में पणजी में, डचों ने 1605 में मछलीपट्नम में, अंग्रेजों ने मद्रास में 1639 में तथा फ़्रांसीसियों ने 1673 में पांडिचेरी ;आज का पुदुचेरी में। व्यापारिक गतिविधियों में विस्तार के साथ ही इन व्यापारिक केंद्रों के आस-पास नगर विकसित होने लगे। अठारहवीं शताब्दी के अंत तक स्थल-आधारित साम्राज्यों का स्थान शक्तिशाली जल-आधारित यूरोपीय साम्राज्यों ने ले लिया। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, वाणिज्यवाद तथा पूँजीवाद की शक्तियाँ अब समाज के स्वरूप को परिभाषित करने लगी थीं।
मध्य-अठारहवीं शताब्दी से परिवर्तन का एक नया चरण आरंभ हुआ। जब व्यापारिक गतिविधियाँ अन्य स्थानों पर केंद्रित होने लगीं पतनोन्मुख हो गए। 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद जैसे-जैसे अंग्रेजों ने राजनीतिक नियंत्रण हासिल किया, और इंग्लिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापार फैला, मद्रास, कलकत्ता तथा बम्बई जैसे औपनिवेशिक बंदरगाह शहर तेजी से नयी आर्थिक राजधानियों के रूप में उभरे। ये औपनिवेशिक प्रशासन और सत्ता के केन्द्र भी बन गए। नए भवनों और संस्थानों का विकास हुआ, तथा शहरी स्थानों को नए तरीकों से व्यवस्थित किया गया। नए रोजगार विकसित हुए और लोग इन औपनिवेशिक शहरों की ओर उमड़ने लगे। लगभग 1800 तक ये जनसंख्या के लिहाज से भारत के विशालतम शहर बन गए थे।
औपनिवेशिक शहरों की पड़ताल
औपनिवेशिक शासन बेहिसाब आंकड़ों और जानकारियों के संग्रह पर आधारित था। अंग्रेजों ने अपने व्यावसायिक मामलों को चलाने के लिए व्यापारिक गतिविधियाँ का विस्तृत ब्यौरा रखा था। बढ़ते शहरों में जीवन की गति और दिशा पर नजर रखने के लिए वे नियमित रूप से सर्वेक्षण करते थे। सांख्यिकीय आँकड़े इकट्ठा करते थे और विभिन्न प्रकार की सरकारी रिपोर्ट प्रकाशित करते थे। प्रारंभिक वर्षों से ही औपनिवेशिक सरकार ने मानचित्र तैयार करने पर खास ध्यान दिया। सरकार का मानना था कि किसी जगह की बनावट और भूदृश्य को समझने के लिए नक्शे जरूरी होते हैं। इस जानकारी के सहारे वे इलाके पर ज्यादा बेहतर नियंत्रण कायम कर सकते थे। जब शहर बढ़ने लगे तो न केवल उनके विकास की योजना तैयार करने के लिए बल्कि व्यवसाय को विकसित करने और अपनी सत्ता मजबूत करने के लिए भी नक्शे बनाये जाने लगे। शहरों के नक्शों से हमें उस स्थान पर पहाड़ियों, नदियों व हरियाली का पता चलता है। ये सारी चीजें रक्षा सम्बन्धी उद्देश्यों के लिए योजना तैयार करने में बहुत काम आती हैं। इसके अलावा घाटों की जगह, मकानों की सघनता और गुणवत्ता तथा सड़कों की स्थिति आदि से इलाके की व्यावसायिक संभावनाओं का पता लगाने और कराधन ;टैक्स व्यवस्थाद्ध की रणनीति बनाने में मदद मिलती है।
उन्नीसवीं सदी के आखिर से अंग्रेजों ने वार्षिक नगर पालिका कर वसूली के जरिए शहरों के रखरखाव के वास्ते पैसा इकट्ठा करने की कोशिशें शुरू कर दी थीं। टकरावों से बचने के लिए उन्होंने कुछ जिम्मेदारियाँ निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों को भी सौंपी हुई थीं। आंशिक लोक-प्रतिनिध्त्वि से लैस नगर निगम जैसे संस्थानों का उद्देश्य शहरों में जलापूर्ति, निकासी, सड़क निर्माण और स्वास्थ्य व्यवस्था जैसी अत्यावश्यक सेवाएँ उपलब्ध कराना था। दूसरी तरफ़ , नगर निगमों की गतिविधियों से नए तरह के रिकॉड्र्स पैदा हुए जिन्हें नगर पालिका रिकॉर्ड रूम में सँभाल कर रखा जाने लगा। शहरों के फैलाव पर नजर रखने के लिए नियमित रूप से लोगों की गिनती की जाती थी। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक विभिन्न क्षेत्रों में कई जगह स्थानीय स्तर पर जनगणना की जा चुकी थी। अखिल भारतीय जनगणना का पहला प्रयास 1872 में किया गया। इसके बाद, 1881 से दशकीय ;हर 10 साल में होने वाली जनगणना एक नियमित व्यवस्था
बन गई। भारत में शहरीकरण का अध्ययन करने के लिए जनगणना से निकले आँकड़े एक बहुमूल्य स्रोत हैं। जब हम इन रिपोर्ट को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि हमारे पास ऐतिहासिक परिवर्तन को मापने के लिए ठोस जानकारी उपलब्धि है। बीमारियों से होने वाली मौतों की सारणियों का अन्तहीन सिलसिला, या उम्र, लिंग, जाति एवं व्यवसाय के अनुसार लोगों को गिनने की व्यवस्था से संख्याओं का एक विशाल भंडार मिलता है जिससे सटीकता का भ्रम पैदा हो जाता है। लेकिन इतिहासकारों ने पाया है कि ये आंकड़े भ्रामक भी हो सकते हैं। इन आंकड़ों का इस्तेमाल करने से पहले हमें इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि आंकड़े किसने इकट्ठा किए हैं, और उन्हें क्यों तथा कैसे इकट्ठा किया गया था। हमें यह भी मालूम होना चाहिए कि किस चीज को मापा गया था और किस चीज को नहीं मापा गया था।
मिसाल के तौर पर, जनगणना एक ऐसा साधिन थी जिसके जरिए आबादी के बारे में सामाजिक जानकारियों को सुगम्य आंकडों में तब्दील किया जाता था। लेकिन इस प्रक्रिया में कई भ्रम थे। जनगणना आयुक्तों ने आबादी के विभिन्न तबकों का वर्गीकरण करने के लिए अलग-अलग श्रेणियाँ बना दी थीं। कई बार यह वर्गीकरण निहायत अतार्किक होता था और लोगों की परिवर्तनशील व परस्पर काटती पहचानों को पूरी तरह नहीं पकड़ पाता था। भला ऐसे व्यक्ति को किस श्रेणी में रखा जाएगा जो कारीगर भी था और व्यापारी भी। जो आदमी अपनी जमीन पर खुद खेती करता है और उपज को खुद शहर ले जाता है, उसको किस श्रेणी में गिना जाएगा। उसे किसान माना जाएगा या व्यापारी?
बहुधा लोग खुद भी इस प्रक्रिया में मदद देने से इनकार कर देते थे या जनगणना आयुक्तों को गलत जवाब दे देते थे। काफ़ी अरसे तक वे जनगणना कार्यों को संदेह की दृष्टि से देखते रहे। लोगों को लगता था कि सरकार नए टैक्स लागू करने के लिए जाँच करवा रही है। उँफची जाति के लोग अपने घर की औरतों के बारे में जानकारी देने से हिचकिचाते थे महिलाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वे घर के भीतरी हिस्से में दुनिया से कट कर रहें, उनके बारे में सार्वजनिक दृष्टि या सार्वजनिक जाँच को सही नहीं माना जाता था। जनगणना अधिकारियों ने यह भी पाया कि बहुत सारे लोग ऐसी पहचानों का दावा करते थे जो उँची हैसियत की मानी जाती थीं। शहरों में ऐसे लोग भी थे जो फैरी लगाते थे या काम न होने पर मजदूरी करने लगते थे।
इस तरह के बहुत सारे लोग जनगणना कर्मचारियों के सामने खुद को अकसर व्यापारी बताते थे क्योंकि उन्हें मजदूरी के मुकाबले व्यापार ज्यादा सम्मानित गतिविधि लगती थी। मृत्यु दर और बीमारियों से संबंध्ति आंकड़ों को इकट्ठा करना भी लगभग असंभव था। बीमार पड़ने की जानकारी भी लोग प्राय: नहीं देते थे। बहुत बार इलाज भी गैर-लाइसेंसी डॉक्टरों से करा लिया जाता था। ऐसे में बीमारी या मौत की घटनाओं का सटीक हिसाब लगाना कैसे संभव था? कहने का मतलब यही है कि इतिहासकारों को जनगणना जैसे स्रोतों का भारी अहतियात से इस्तेमाल करना पड़ता है। उन्हें जनगणना के पीछे निहित संभावित पूर्वाग्रहों को ध्यान में रखते हुए इन संख्याओं की सावधानी से पड़ताल करनी चाहिए और यह समझना चाहिए कि ये संख्याएँ क्या नहीं बता रही हैं। मगर जनगणना और नगरपालिका जैसे संस्थानों के सर्वेक्षण मानचित्रों और रिकार्डों के सहारे औपनिवेशिक शहरों का पुराने शहरों के मुकाबले ज्यादा विस्तार से अध्ययन किया जा सकता है।
बदलाव के रुझान
जनगणनाओं का सावधानी से अध्ययन करने पर कुछ दिलचस्प रुझान सामने आते हैं। सन् 1800 के बाद हमारे देश में शहरीकरण की रफ़्तार धीमी रही। पूरी उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के पहले दो दशकों तक देश की कुल आबादी में शहरी आबादी का हिस्सा बहुत मामूली और स्थिर रहा। 1900 से 1940 के बीच 40 सालों के दरमियान शहरी आबादी 10 प्रतिशत से बढ़ कर लगभग 13 प्रतिशत हो गई थी। अपरिवर्तनशीलता के नीचे विभिन्न क्षेत्रों में शहरी विकास के रुझानों में उल्लेखनीय उतार-चढ़ाव छिपे हुए हैं। छोटे कस्बों के पास आर्थिक रूप से विकसित होने के ज्यादा मौके नहीं थे। दूसरी तरफ़ कलकत्ता, बम्बई और मद्रास तेजी से फैले और जल्दी ही विशाल शहर बन गए।
कहने का मतलब यह है कि नए व्यावसायिक एवं प्रशासनिक केंद्रों के रूप में इन तीन शहरों के पनपने के साथ-साथ कई दूसरे तत्कालीन शहर कमजोर भी पड़ते जा रहे थे। औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का केंद्र होने के नाते ये शहर भारतीय सूती कपड़े जैसे निर्यात उत्पादों के लिए संग्रह डिपो थे। मगर इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद इस प्रवाह की दिशा बदल गई और इन शहरों में ब्रिटेन के कारखानों में बनी चीजें उतरने लगीं। भारत से तैयार माल की बजाय कच्चे माल का निर्यात होने लगा। इस आर्थिक गतिविधि का स्वरूप ऐसा था कि उसने औपनिवेशिक शहरों को देश के परंपरागत शहरों और कस्बों से बिलकुल अलग ला खड़ा किया।
1853 में रेलवे की शुरुआत हुई। इसने शहरों की कायापलट कर दी। आर्थिक गतिविधियों का केंद्र परंपरागत शहरों से दूर जाने लगा क्योंकि ये शहर पुराने मार्गों और नदियों के समीप थे। हरेक रेलवे स्टेशन कच्चे माल का संग्रह केंद्र और आयातित वस्तुओं का वितरण बिंदु बन गया। उदाहरण के लिए, गंगा के किनारे स्थित मिर्जापुर दक्कन से कपास तथा सूती वस्तुओं के संग्रह का केंद्र था जो बम्बई तक जाने वाली रेलवे लाइन के अस्तित्व में आने के बाद अपनी पहचान खोने लगा था। रेलवे नेटवर्क के विस्तार के बाद रेलवे वर्कशॉप्स और रेलवे कालोनियों की भी स्थापना शुरू हो गई। जमालपुर, वॉल्टेयर और बरेली जैसे रेलवे नगर अस्तित्व में आए।
नए शहर कैसे थे?
बंदरगाह, किले और सेवाओं के केंद्र अठारहवीं सदी तक मद्रास, कलकत्ता और बम्बई महत्वपूर्ण बंदरगाह बन चुके थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कारखानों ;यानी वाणिज्यिक कार्यालय इन्हीं बस्तियों में बनाए और यूरोपीय कंपनियों के बीच प्रतिस्पधार् के कारण सुरक्षा के उद्देश्य से इन बस्तियों की किलेबंदी कर दी। मद्रास में फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फ़ोर्ट विलियम और बम्बई में फ़ोर्ट, ये इलाके ब्रिटिश आबादी के रूप में जाने जाते थे। यूरोपीय व्यापारियों के साथ लेन-देन चलाने वाले भारतीय व्यापारी, कारीगर और कामगार इन किलों के बाहर अलग बस्तियों में रहते थे। यूरोपीयों और भारतीयों के लिए शुरू से ही अलग क्वार्टर बनाए गये थे। उस समय के लेखन में उन्हें व्हाइट टाउन ;गोरा शहर और ब्लैक टाउन ;काला शहर के नाम से उद्धृत किया जाता था। राजनीतिक सत्ता अंग्रेजों के हाथ में आ जाने के बाद यह नस्ली फ़र्क और भी तीखा हो गया।
उन्नीसवीं सदी के मध्य में रेलवे के फैलते नेटवर्क ने इन शहरों को शेष भारत से जोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि जहाँ से कच्चा माल और मजदूर आते थे, ऐसे देहाती और दूर-दराज इलाव्फ़ो भी इन बंदरगाह शहरों से गहरे तौर पर जुड़ने लगे। क्योंकि कच्चा माल निर्यात के लिए इन शहरों में आता था और सस्ते श्रम की कोई कमी नहीं थी इसलिए वहाँ कारखानें लगाना आसान था। 1850 के दशक के बाद भारतीय व्यापारियों और उद्यमियों ने बम्बई में सूती कपड़ा मिलें लगाईं। कलकत्ता के बाहरी इलाव्फ़ो में यूरोपीयों के स्वामित्व वाली जूट मिलें खोली गईं।
यह भारत में आधुनिक औद्योगिक विकास की शुरुआत थी। हालाँकि कलकत्ता, बम्बई और मद्रास इंग्लिश कारखानो के लिए कच्चा माल भेजते थे और पूँजीवाद जैसी आधुनिक आर्थिक ताकतों के बल पर मजबूती से सामने आ चुके थे लेकिन उनकी अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से फ़ैक्ट्री उत्पादन पर आधारित नहीं थी। इन शहरों की ज्यादातर कामकाजी आबादी उस श्रेणी में आती थी जिसे अर्थशास्त्री तृतीयक क्षेत्र या सेवा क्षेत्र कहते हैं। उस समय यहाँ सही मायनों में केवल दो औद्योगिक शहर थे। एक कानपुर और दूसरा जमशेदपुर। कानपुर में चमड़े की चीजें, उफनी और सूती कपड़े बनते थे जबकि जमशेदपुर स्टील उत्पादन के लिए विख्यात था। भारत कभी भी एक आधुनिक औद्योगिक देश नहीं बन पाया क्योंकि पक्षपातपूर्ण औपनिवेशिक नीतियों ने हमारे औद्योगिक विकास को आगे नहीं बढ़ने दिया। कलकत्ता, बम्बई और मद्रास बड़े शहर तो बने लेकिन इससे औपनिवेशिक भारत की समूची अर्थव्यवस्था में कोई नाटकीय इजाफ़ा नहीं हुआ।
एक नया शहरी परिवेश
औपनिवेशिक शहर नए शासकों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिम्बित करते थे। राजनीतिक सत्ता और संरक्षण भारतीय शासकों के स्थान पर ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों के हाथ में जाने लगा। दुभाषिए, बिचौलिए, व्यापारी और माल आपूर्तिकर्ता के रूप में काम करने वाले भारतीयों का भी इन नए शहरों में एक महत्वपूर्ण स्थान था। नदी या समुद्र के किनारे आर्थिक गतिविधियों से गोदियों और घाटियों का विकास हुआ। समुद्र किनारे गोदाम, वाणिज्यिक कार्यालय, जहाजरानी उद्योग के लिए बीमा एजेंसियाँ, यातायात डिपो और बैंकिंग संस्थानों की स्थापना होने लगी। कंपनी के मुख्य प्रशासकीय कार्यालय समुद्र तट से दूर बनाए गए। कलकत्ता में स्थित राइटर्स बिल्डिंग इसी तरह का एक दफ़तर हुआ करती थी। यहाँ फ्राइटर्स का आशय क्लर्को से था। यह ब्रिटिश शासन में नौकरशाही के बढ़ते कद का संकेत था। किले की चारदिवारी के आस-पास यूरोपीय व्यापारियों और एजेंटों ने यूरोपीय शैली के महलनुमा मकान बना लिए थे। कुछ ने शहर की सीमा से सटे उपशहरी इलाकों में बगीचा घर बना लिए थे। शासक वर्ग के लिए नस्ली विभेद पर आधरित क्लब, रेसकोर्स और रंगमंच भी बनाए गए। अमीर भारतीय एजेंटों और बिचौलियों ने बाजारों के आस-पास ब्लैक टाउन में परंपरागत ढंग के दालानी मकान बनवाए। उन्होंने भविष्य में पैसा लगाने के लिए शहर के भीतर बड़ी-बड़ी जमीनें भी ख्ऱीद ली थीं।
अपने अंग्रेज स्वामियों को प्रभावित करने के लिए वे त्योहारों के समय रंगीन दावतों का आयोजन करते थे। समाज में अपनी हैसियत साबित करने के लिए उन्होंने मंदिर भी बनवाए। मजदूर वर्ग के लोग अपने यूरोपीय और भारतीय स्वामियों के लिए ख्ऩाासामा, पालकीवाहक, गाड़ीवान, चौकीदार, पोर्टर और निर्माण व गोदी मजदूर के रूप में विभिन्न सेवाएँ उपलब्ध् कराते थे। वे शहर के विभिन्न इलाकों में कच्ची झोंपड़ियों में रहते थे।
उन्नीसवीं सदी के मध्य में औपनिवेशिक शहर का स्वरूप और भी बदल गया। 1857 के विद्रोह के बाद भारत में अंग्रेजों का रवैया विद्रोह की लगातार आशंका से तय होने लगा था। उनको लगता था कि शहरों की और अच्छी तरह हिफ़ाजत करना जरूरी है और अंग्रेजों को देशियों ; दूर, ज्यादा सुरक्षित व पृथक बस्तियों में रहना चाहिए। पुराने कस्बों के इर्द-गिर्द चरागाहों और खेतों को साफ़ कर दिया गया। सिविल लाइन्स के नाम से नए शहरी इलाको विकसित किए गए। सिविल लाइन्स में केवल गोरों को बसाया गया। छावनियों को भी सुरक्षित स्थानों के रूप में विकसित किया गया। छावनियों में यूरोपीय कमान के अंतर्गत भारतीय सैनिक तैनात किए जाते थे। ये इलाके मुख्य शहर से अलग लेकिन जुड़े हुए होते थे। चौड़ी सड़कों, बड़े बगीचों में बने बंगलों, बैरकों, परेड मैदान और चर्च आदि से लैस ये छावनियाँ यूरोपीय लोगों के लिए एक सुरक्षित आश्रय स्थल तो थीं ही, भारतीय कस्बों की घनी और बेतरतीब बसावट के विपरीत
व्यवस्थित शहरी जीवन का एक नमूना भी थीं। अंग्रेजों की नजर में काले इलाव्फ़ो न केवल अराजकता और हो-हल्ले का केंद्र थे, वे गंदगी और बीमारी का स्रोत भी थे। काफ़ी समय तक अंग्रेजों की दिलचस्पी गोरों की आबादी में सफ़ाई और स्वच्छता बनाए रखने तक ही सीमित थी लेकिन जब हैजा और प्लेग जैसी महामारियाँ फैलीं और हजारों लोग मारे गये तो औपनिवेशिक अफ़सरों को स्वच्छता व सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए ज्यादा कड़े कदम उठाने की जरूरत महसूस हुई। उनको भय था कि कहीं ये बीमारियाँ ब्लैक टाउन से व्हाइट टाउन में भी न फैल जाएँ।
1860-70 के दशकों से स्वच्छता के बारे में कड़े प्रशासकीय उपाय लागू किए गये और भारतीय शहरों में निर्माण गतिविधियों पर अंकुश लगाया गया। लगभग इसी समय भूमिगत पाइप आधरित जलापूर्ति, निकासी और नाली व्यवस्था भी निर्मित की गई। इस प्रकार भारतीय शहरों को नियमित व नियंत्रित करने के लिए स्वच्छता निगरानी भी एक अहम तरीका बन गया।
पहला हिल स्टेशन
छावनियों की तरह हिल स्टेशन ;पर्वतीय सैरगाह भी औपनिवेशिक शहरी विकास का एक खास पहलू थी। हिल स्टेशनों की स्थापना और बसावट का संबंध् सबसे पहले ब्रिटिश सेना की जरूरतों से था। सिमला ;वर्तमान शिमला की स्थापना गुरखा युद्ध ;1815-1816 के दौरान की गई। अंग्रेज-मराठा ;1818 युद्ध के कारण अंग्रेजों की दिलचस्पी माउंट आबू में बनी जबकि दार्जीलिंग को 1835 में सिक्किम के राजाओं से छीना गया था। ये हिल स्टेशन फ़ौजियों को ठहराने, सरहद की चौकसी करने और दुश्मन पर हमला बोलने के लिए महत्वपूर्ण स्थान थे।
भारतीय पहाड़ों की मृदु और ठंडी जलवायु को फायदे की चीज माना जाता था, खासतौर से इसलिए कि अंग्रेज गर्म मौसम को बीमारियाँ पैदा करने वाला मानते थे। उन्हें गर्मियों के कारण हैजा और मलेरिया की सबसे ज्यादा आंशका रहती थी। वे फ़ौजियों को इन बीमारियों से दूर रखने की पूरी कोशिश करते थे। सेना की भारी-भरकम मौजूदगी के कारण ये स्थान पहाड़ियों में एक नयी तरह की छावनी बन गये। इन हिल स्टेशनों को सेनेटोरियम के रूप में भी विकसित किया गया था। सिपाहियों को यहाँ विश्राम करने और इलाज कराने के लिए भेजा जाता था।
क्योंकि हिल स्टेशनों की जलवायु यूरोप की ठंडी जलवायु से मिलती-जुलती थी इसलिए नये शासकों को वहाँ की आबो-हवा काफ़ी लुभाती थी। वायसराय अपने पूरे अमले के साथ हर साल गर्मियों में हिल स्टेशनों पर ही डेरा डाल लिया करते थे। 1864 में वायसराय जॉन लॉरेंस ने अधिकॄत रूप से अपनी काउंसिल शिमला में स्थानांतरित कर दी और इस तरह गर्म मौसम में राजधानियाँ बदलने के सिलसिले पर विराम लगा दिया। शिमला भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ़ ;प्रधान सेनापति का भी अध्कृत आवास बन गया।
हिल स्टेशन ऐसे अंग्रेजों और यूरोपीयनों के लिए भी आदर्श स्थान थे जो अपने घर जैसी मिलती-जुलती बस्तियाँ बसाना चाहते थे। उनकी इमारतें यूरोपीय शैली की होती थीं। अलग-अलग मकानों के बाद एक-दूसरे से कटे विला और बागों के बीच में स्थित कॉटेज बनाए जाते थे। एंग्लिकन चर्च और शैक्षणिक संस्थान आंग्ल आदर्शों का प्रतिनिधित्व करते थे। सामाजिक दावत, चाय, बैठक, पिकनिक, रात्रिभोज, मेले, रेस और रंगमंच जैसी घटनाओं के रूप में यूरोपीयों का सामाजिक जीवन भी एक खास किस्म का था। रेलवे के आने से ये पर्वतीय सैरगाहें बहुत तरह के लोगों की पहुँच में आ गईं। अब भारतीय भी वहाँ जाने लगे। उच्च और मध्यवर्गीय लोग, महाराजा, वकील और व्यापारी सैर-सपाटे के लिए इन स्थानों पर जाने लगे। वहाँ उन्हें शासक यूरोपीय अभिजन के निकट होने का संतोष मिलता था। हिल स्टेशन औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण थे। पास के हुए इलाकों में चाय और कॉप्फ़ी बगानों की स्थापना से मैदानी इलाकों से बड़ी संख्या में मजदूर वहाँ आने लगे। इसका नतीजा यह हुआ कि अब हिल स्टेशन केवल यूरोपीय लोगों की ही सैरगाह नहीं रह गए थे।
नए शहरों में सामाजिक जीवन
साधारण भारतीय आबादी के लिए नए शहर दाँतों तले उँगली दबा लेने का अनुभव थे जहाँ ज़िंदगी हमेशा दौड़ती-भागती सी दिखाई देती थी। वहाँ चरम संपन्नता और गहन गरीबी, दोनों के दर्शन एक साथ होते थे। घोड़ागाड़ी जैसे नए यातायात साधन और बाद में ट्रामों और बसों के आने से यह हुआ कि अब लोग शहर के केंद्र से दूर जाकर भी बस सकते थे। समय के साथ काम की जगह और रहने की जगह, दोनों एक-दूसरे से अलग होते गए। घर से दफ़तर या फ़ैक्ट्री जाना एक नए किस्म का अनुभव बन गया। यद्यपि अब पुराने शहरों में मौजूद सामंजस्य और वाकफ़ियत का अहसास गायब था लेकिन टाउन हॉल, सार्वजनिक पार्क, रंगशालाओं और बीसवीं सदी में सिनेमा हॉलों जैसे सार्वजनिक स्थानों के बनने से शहरों में लोगों को मिलने-जुलने की उत्तेजक नयी जगह और अवसर मिलने लगे थे। शहरों में नए सामाजिक समूह बने तथा लोगों की पुरानी पहचानें महत्वपूर्ण नहीं रहीं। तमाम वर्गों के लोग बड़े शहरों में आने लगे। क्ल्र्को, शिक्षकों, वकीलों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, अकाउंटेंट्स की माँग बढ़ती जा रही थी। नतीजा, मध्यवर्ग बढ़ता गया। उनके पास स्वूल, कॉलेज और लाइब्रेरी जैसे नए शिक्षा संस्थानों तक अच्छी पहुँच थी। शिक्षित होने के नाते वे समाज और सरकार के बारे में अख्ब़ारों, पत्रिकाओं और सार्वजनिक सभाओं में अपनी राय व्यक्त कर सकते थे। बहस और चर्चा का एक नया सार्वजनिक दायरा पैदा हुआ। सामाजिक रीति-रिवाज, कायदे-कानून और तौर-तरीकों पर सवाल उठने लगे।
लेकिन बहुत सारे सामाजिक बदलाव स्वाभाविक रूप से या आसानी से नहीं आ रहे थे। शहरों में औरतों के लिए नए अवसर थे। पत्र-पत्रिकाओं, आत्मकथाओं और फस्तकों के माध्यम से मध्यवर्गीय औरतें खुद को अभिव्यक्त करने का प्रयास कर रही थीं। परंपरागत पितृसत्तात्मक कायदे-कानूनों को बदलने की इन कोशिशों से बहुत सारे लोगों को असंतोष था। रूढ़िवादियों को भय था कि अगर औरतें पढ़-लिख गईं तो वे दुनिया को उलट कर रख देंगी और पूरी सामाजिक व्यवस्था का आधर ख्त़ारे में पड़ जाएगा। यहाँ तक कि महिलाओं की शिक्षा का समर्थन करने वाले सुधारक भी औरतों को माँ और पत्नी की परंपरागत भूमिकाओं में ही देखते थे और चाहते थे कि वे घर की चारदीवारी के भीतर ही रहें।
समय बीतने के साथ सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने लगी। वे नौकरानी और फ़ैक्ट्री मजदूर, शिक्षिका, रंगकर्मी और फ़िल्म कलाकार के रूप में शहर के नए व्यवसायों में दाखिल होने लगीं। लेकिन ऐसी महिलाओं को लंबे समय तक सामाजिक रूप से सम्मानित नहीं माना जाता था जो घर से निकलकर सार्वजनिक स्थानों में जा रही थीं। शहरों में मेहनतकश गरीबों या कामगारों का एक नया वर्ग उभर रहा था। ग्रामीण इलाकों के गरीब रोजगार की उम्मीद में शहरों की तरफ़ भाग रहे थे। कुछ लोगों को शहर नए अवसरों का स्रोत दिखाई देते थे। कुछ को एक भिन्न जीवनशैली का आकर्षण खींच रहा था। उनके लिए यह एक ऐसी चीज थी जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी। शहर में जीने की लागत पर अंकुश रखने के लिए ज्यादातर पुरुष प्रवासी अपना परिवार गाँव में छोड़कर आते थे। शहर की ज़िन्दगी एक संघर्ष थी : नौकरी पक्की नहीं थी, खाना मँहगा था, रिहाइश का खर्चा उठाना मुश्किल था। फिर भी ग्ऱीबों ने वहाँ प्राय: अपनी एक अलग जीवंत शहरी संस्कृति रच ली थी। वे धर्मिक त्योहारों, तमाशों ;लोक रंगमंचद्ध और स्वांग आदि में उत्साहपूर्वक हिस्सा लेते थे जिनमें ज्यादातर उनके भारतीय और यूरोपीय स्वामियों का मजाक उड़ाया जाता था।