संदर्भ
- 6 दिसंबर, 2017 को संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा घोषणा की गई कि अमेरिका आधिकारिक तौर पर येरुशलम को इज़राइल की राजधानी के रूप में मान्यता देगा और यहाँ अमेरिकी दूतावास के लिये एक नई इमारत का निर्माण होगा।
- हाल ही में 128 देशों के समर्थन के साथ संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पारित किया गया है जो येरुशलम पर अमेरिका के हालिया रुख का विरोध करता है। गौरतलब है कि भारत ने भी अमेरिका के इस प्रस्ताव के विरुद्ध वोटिंग की है।
- पिछले एक दशक में जहाँ भारत और अमेरिका के संबंध लगातार बेहतर हुए हैं, वहीं इज़राइल भारत के एक महत्त्वपूर्ण सहयोगी के तौर पर उभरा है।
- ऐसे में भारत का अमेरिका और इज़राइल दोनों की इच्छाओं के अनुरूप कदम न उठाना एक चौंकाने वाला कदम माना जा रहा है।
कुछ विशेषज्ञ भारत के इस कदम की आलोचना कर रहे हैं तो वहीं कुछ का मानना है कि यह भारत की विदेश नीति के लिये महत्त्वपूर्ण है। इस लेख में हम येरुशलम पर भारत के हालिया रुख के आलोक में देश की विदेश नीति का अवलोकन करेंगे।
येरुशलम विवाद की पृष्ठभूमि
- इज़राइल राष्ट्र की स्थापना वर्ष 1948 में हुई थी। तब इज़राइली संसद को शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थापित किया गया था। परन्तु, वर्ष 1967 के युद्ध में इज़राइल ने पूर्वी येरुशलम पर भी अपना कब्ज़ा जमा लिया।
- इस प्रकार प्राचीन शहर भी इज़राइल के नियंत्रण में आ गया। हालाँकि इसे कभी भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य करार नहीं दिया गया और इस संबंध में इज़राइल द्वारा कई बार आपत्ति दर्ज़ की गई।
- जहाँ एक ओर इज़राइली येरुशलम को अपनी अविभाजित राजधानी के रूप में स्वीकार करते हैं, वहीं दूसरी ओर फिलिस्तीनी पूर्वी येरुशलम को अपनी राजधानी मानते हैं।
- फिलस्तीनी और इज़राइलियों के मध्य विवाद का मुख्य कारण यही प्राचीन येरुशलम शहर ही है। यह क्षेत्र केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि राजनीतिक एवं कूटनीतिक दृष्टि से भी बेहद अहम् है।
- इस क्षेत्र की भौगोलिक अथवा राजनीतिक स्थिति में ज़रा सा भी परिवर्तन हिंसक तनाव का रूप धारण कर लेता है। संयुक्त राष्ट्र के साथ-साथ लगभग अधिकांशतः विश्व इस स्थान को विवादित घोषित करने के पक्ष में है।
- लेकिन अमेरिका ने हाल ही में येरुशलम को अधिकारिक तौर पर इज़राइल की राजधानी बता दिया था और यहाँ अपना दूतावास स्थापित करने की बात की थी, जो कि वर्तमान में ‘तेल अवीव’ में स्थित है।
अमेरिका के खिलाफ कैसे पारित हुआ यह प्रस्ताव?
- संयुक्त राष्ट्र में लम्बे समय से इस स्थान को ‘विवादित स्थल’ घोषित करने की कवायद चल रही है और इसी कड़ी में सुरक्षा परिषद् में इजिप्ट द्वारा एक प्रस्ताव पेश किया गया था।
- अमेरिका ने इस प्रस्ताव के खिलाफ वीटो कर दिया अतः यह प्रस्ताव सुरक्षा परिषद में पारित नहीं हो पाया था।
- तत्पश्चात अमेरिका द्वारा इज़राइल की राजधानी के रूप में यरुशलम को मान्यता देने के विरोध में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक प्रस्ताव लाया गया।
- जैसा कि हम जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में किसी प्रस्ताव को पारित करने के लिये दो-तिहाई बहुमत मिलना अनिवार्य है और इस प्रस्ताव के पक्ष में यानी अमेरिका के विरोध में भारत सहित 128 देशों ने मतदान किया।
- यूरोपीय संघ, आसियान और जीसीसी के सभी सदस्यों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि केवल इज़राइल, होंडुरास, ग्वाटेमाला और प्रशांत महासागर में स्थित तीन द्वीपीय राष्ट्रों ने इसके खिलाफ मतदान किया।
- गौरतलब है कि अमेरिका ने सदस्य देशों को इस प्रस्ताव का समर्थन करने से मना किया था। इसके बावजूद यह प्रस्ताव आसानी से पारित हो गया।
भारत द्वारा प्रस्ताव के समर्थन में वोटिंग के कारण
⇒ आज ऐसा माना जा रहा है कि अपने विकास और सुरक्षा के लिये भारत को अब गुट-निरपेक्षता की आवश्यकता नहीं है।
⇒ दरअसल, गुट-निरपेक्षता किसी देश के व्यक्तिगत उत्थान में कोई अड़चन पैदा नहीं करता। इसके सदस्य देश अपने विकास के लिये निर्णय लेने को स्वतंत्र हैं।
⇒ भारत अब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता प्राप्त करने का इच्छुक है। ऐसे में ‘नाम’ (Non-Aligned Movement-NAM) सदस्यों का समर्थन निश्चित रूप से उसकी इस मांग को बल देगा।
⇒ साथ ही समकालीन भारतीय विदेश नीति की प्रकृति को देखते हुए गुट-निरपेक्षता का महत्त्व आज भी है। क्योंकि इस परिवर्तनशील दौर में विश्व समुदाय को साथ लेकर चलने में ही दूरदर्शिता है।
- भारत की वैश्विक शक्ति बनने की महत्त्वाकांक्षा:
⇒ दरअसल, भारत एक वैश्विक शक्ति बनना चाहता है। विदेश सचिव एस. जयशंकर के शब्दों में ‘भारत का लक्ष्य एक संतुलन साधने वाला देश (Balancing power) नहीं बल्कि एक प्रमुख शक्ति (leading power) बनना है’।
⇒ सर्वविदित है कि किसी का पिछलग्गू बनकर वैश्विक शक्ति बनने के सपने को साकार नहीं किया जा सकता और भारत ने हाल-फ़िलहाल के कुछ दिनों में यह साबित किया है कि वह किसी का पिछलग्गू नहीं है।
⇒ चाहे चागोस अर्किपिलागो मामले में ब्रिटेन के बजाय मॉरीशस का साथ देने की बात हो या फिर अमेरिका के विरोध के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में भारत की हालिया जीत की, भारत ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि की है।
⇒ इस प्रस्ताव के पक्ष में वोटिंग कर भारत ने स्वयं को वैश्विक बहुमत का हिस्सा बना लिया है।
⇒ विदित हो कि शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) और ब्रिक्स को महत्त्व देना भारत की विदेश नीति में प्रमुखता से शामिल है।
⇒ एससीओ सदस्य देशों और ब्रिक्स देशों ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका द्वारा भी इस प्रस्ताव के समर्थन में वोटिंग की गई है।
निष्कर्ष
- इज़राइल के कुल रक्षा उत्पादन सामग्री का लगभग एक-तिहाई भारत द्वारा खरीदा जाता है। ऐसे में संभावना यही है कि भारत-इज़राइल संबंध पूर्ववत् ही बने रहेंगे।
- जहाँ तक अमेरिका का सवाल है तो भारत का विशाल बाज़ार और चीन का बढ़ता प्रभुत्व ऐसे दो कारक हैं जो भारत-अमेरिका संबंधों में गर्माहट को बनाए रखने का कार्य करेंगे।
- निष्कर्षतः यह कहना उचित होगा कि भारत अपने इस कदम से वैश्विक पटल पर एक मज़बूत राष्ट्र के तौर पर उभरा तो है ही साथ में शक्ति संतुलन की व्यवस्था कायम करने में भी सफल रहा है।
प्रश्न: हाल ही में भारत द्वारा अमेरिका के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में किया गया मतदान किस तरह से भारत-इज़रायल संबंधों को प्रभावित कर सकता है? टिप्पणी करें। |